नवाजिश-ए-हुस्न-2

Discussion in 'Hindi Sex Stories' started by 007, Dec 1, 2017.

  1. 007

    007 Administrator Staff Member

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    तो मैंने फ़िर एक वार किया, खुदा से मुखातिब होते हुए:

    ए खुदा, इसकी खामोशी से मेरी ये हालत है तो

    जब बोलेंगे तो क्या आलम होगा मेरे मजलूम दिल का?

    और ये सुनते ही शहनाज़ मेरी तरफ देख के बोली- बड़ी दिलकश और प्यारी अदा है आपकी, क्या करते हैं आप?

    मैंने जवाब सीधा देने की बजाए शेर में दिया:

    'न अपनी खबर है न दिल का पता है, न जाने मुझे तूने क्या कर दिया है !'

    तो वो शरमा गई और चहेरा फेर लिया तो मैंने कहा- जी मैं पढ़ रहा हूँ।

    फ़िर मैंने पूछा- और आप?

    'जी मैं पढ़ चुकी, अब घर की रोज़िन्दा ज़िन्दगी जी रही हूँ।"

    ये सब लड़कियाँ 21-22 साल की थी और उन्हें अंदाजा न था के मैं सिर्फ 18 का हूँ क्योंकि मैं हट्टा-कट्टा जवां मर्द ही लगता हूँ 16 साल के बाद से !

    और इतने में हम पहुँच गए और चारों को सही सलामत ऊपर उनके कमरे तक पहुँचाया, सामान अन्दर रखवाया, मैं दरवाज़े पे खड़ा हुआ था और जाने लगा तो रज़िया- बोली जा रहे हो?

    मैंने कहा- शहनाज़ को छोड़ के जाने का दिल तो नहीं कर रहा मगर वो तो मुझसे ऐसे गाफिल है के जाना ही पड़ेगा यहाँ से मुझे !

    शहनाज़ यह सुन कर उठी और आई मेरे पास दरवाज़े पे और बेखुदी की हालत में मुस्कुराते हुए बोली- मैं कहाँ गाफिल हूँ?

    मैंने कहा- सर से पाँव तक गाफिल हो तुम अपनी खूबसूरती से, तुम्हें अंदाजा तक नहीं मेरे दिल की केफियत का, क़सम इश्क-ए-जुलेखा की मुझ पे मुसलसल गशी तारी है आपके जलवो की हैबत से !

    इतना सुनते ही निहायती प्यारी अदा से वो शरमाते हुए मुँह फेर कर अन्दर की तरफ चली गयी।

    मैंने कहा- तुम मुझ से लाख दूर जाओ मगर खुद से कैसे दूर जाओगी?

    जब जब अपने आप को आईने के सामने पाओगी।

    और इसी के साथ एक शेर याद आ गया मुझे 'शाकिर' का

    "मुझे यकीं है कि आराईश-ए-जमाल के बाद तुम्हारे हाथ से आईना गिर गया होगा"

    यह शेर सिर्फ यहाँ लिखा है, न कि वहाँ बोला था।

    इतने में दुल्हन की नज़र मेरी तरफ उठी तो अहेतरामन मैंने अब इस साज़िश-ए-इश्क की फितना-खोरी को यहाँ रोकना ठीक समझा और रज़िया से मुखातिब होते हुए कहा- यह मेरा मोबाइल नंबर है, अगर कुछ काम पड़े तो मुझे काल कर लेना !

    और निकल आया वहाँ से और अफज़ल के घर आ गया।

    कुछ देर न बीती थी कि फोन आया, शीरीं आवाज़ में वो गुलबदन बोली- अस-सलामो-अलैकुम !

    मैंने जवाबन कहा व-अलैकुमो अस-सलाम या अहेल-उल हुस्न ! जी शहनाज़ बोलो?

    तो वो ताज्जुब पाते हुए बोली- अरे, आप तो पहचान गए।

    तो मैंने साज़िश-ए-इश्क के तहत एक वार और किया- जी खुदा ने ये होश-ओ-हुनर अता किया है के अब ता-उम्र आपकी आहट से ही आपको पहचान लूँगा।

    शरमाहट के आलम में वो मेरे इस जुमले पर कुछ न बोली और कहने लगी- कैसे हैं आप?

    मैंने कहा- तक़रीबन जहाँ तक मेरा ख़याल है, ठीक हूँ ! आगे आपका जो ख़याल हो उस हालत में मुन्तकिल होना मेरे वजूद-ए-बेअसर के लिए असरदार होगा.

    तो शहनाज़ बोली- अल्लाह्ह, कितनी दिल-फरेब और दिल-काश बातें करते हैं आप ! कौन हो आप?

    मैंने कहा- जी आपका अभी अभी ताज़ा ताज़ा किया गया ज़ख़्मी हूँ, दर्द-मंद हूँ, दर्द की शिफा चाहता हूँ !

    आप को बता दूँ कि ज़हीन लड़की/औरत से ही दोस्ती और मोहब्बत करना पसंद करता हूँ, ज़हीन की ज़हानत उसे जिस्मानियत के रिश्ते की पूरी लज्ज़त देती है, कम-अक्ल लड़की/औरत को सिर्फ सेक्स का ही शऊर होता है, उसकी असल लज्ज़त और मोहब्बत का उसे अंदाजा नहीं होता। ज़हीन लड़की/औरत के दिल में प्यार का असर पैदा करना कमाल है, और मैं कमाल-पसंद को ही पसंद करता हूँ।

    तो वो अपनी ज़हानत (अकलमंदी) का मुजाहिरा करते हुए और मैं जिस अंदाज़ से पेश आ रहा हूँ, वो उसे पसंद है, इन दोनों बातों का इज़हार करते हुए बोली- आपकी चाहत अपनी जगह दुरुस्त और जायज़ है मगर बहरहाल मैं चाहती हूँ हमारी बस से दुल्हन का बैग आप भिजवा दें तो आपकी मेहरबानी होगी।

    मैंने कहा- ओये होए ! खुद ना'मेहरबाँ होके हम से महेरबानी की उम्मीद लगाए बैठी हो? कुर्बान जाऊँ तुम्हारी इस सरकशी पर !

    तो कहने लगी- कुर्बान बाद में जाना, अभी बस पे जाओ और बैग भिजवा दो !

    मैंने कहा- बन्दा खुद ही लेकर हाज़िर होता है, इसी बहाने आपके वजूद-ए-पुर-जमाल का फ़िर एक बार दीदार हो जाएगा अल्लाह के करम से !

    "ठीक है !" कह कर उसने फोन रख दिया।

    यानि इतना ज़रूर समझ आने लगा था कि मेरी दीवानगी उसे अहसास-ए-नाज़ दिला रही थी और उसे अच्छा लग रहा था, मैंने इरादा किया कि उसे बाईक पे अपने पीछे बिठाना है और वैसे भी कार को सजाने की तैयारी हो रही थी दूल्हे के लिए !

    मैं गया अफज़ल की बाईक लेकर बस पे, और बस कहाँ खड़ी है ये देख लिया, और फ़िर बैग लिए बिना सीधे होटल पे गया।

    दरवाज़ा रज़िया ने खोला और बोली- लाये आप बैग?

    मैंने कहा- शहनाज़ कहाँ है?

    तो रज़िया कहने लगी- अरे अस्माँ के साथ साथ शहनाज़ को भी आज के आज दुल्हन बना के यहीं रख लेने का इरादा है क्या?

    मैंने कहा- हाँ !!

    तो हंस दी वो और शहनाज़ को आवाज़ दी- शहनाज़ !

    वो वाशरूम से बोली- आई !

    आई तो उसके चेहरे से पानी टपक रहा था, बाल भीग गए थे, क़यामतनुमा मंज़र था और दुपट्टा भी नहीं था।

    मुझे देख कर हड़बड़ाहट से दुपट्टा लेकर अपने आपको महफ़ूज़ किया लिबास-ए-इज्ज़त में !

    मुझे उसकी इस अदा पे उसपे बहुत प्यार आया, मैंने उसे कहा ऐसे हक से मानो वो मेरी जौजा (पत्नी) हो- चलो मेरे साथ बस में तो बहुत सी बैग हैं उसमें तुम लोगों की कौन सी है, मुझे क्या मालूम?

    तो इधर उधर सबकी ओर देखने लगी और रज़िया से कहने लगी- तू जा !

    रज़िया बोली- शहनाज़ तेरी आँखों की बेचैनी कह रही है कि तू जाना चाहती है, फ़िर यग नाटक क्यों कि 'रज़िया तू जा'?

    तो वो मेरी और देख कर शरमा के मुस्कुरा दी और दबे पाँव किसी के सामने देखे बिना कमरे से बाहर निकल आई, और मैं भी उसके पीछे निकल आया। रज़िया ने 'बेस्ट ऑफ़ लक' का अंगूठा दिखाया मुझे और शहनाज़ को !

    हम दोनों साथ साथ नीचे उतरे, वो एक लफ्ज़ न बोल रही थी क्योंकि रज़िया ने जो विस्फोट किया था उसकी वजह से वो शर्मसार और पानी पानी हुए जा रही थी।

    मैंने बाईक निकाली और बैठने को कहा, वो चुपचाप खड़ी रही तो मैंने कहा- अगर नहीं आना तो रजिया को ले जाऊँ?

    तो वो गुस्से से मेरी ओर ऐसे देखने लगी, मानो हम दोनों का पुराना रिश्ता हो, और बैठ गई, एक हाथ मेरे कन्धे पर रखा तो मैंने अपनी गर्दन से उसके हाथ को दबोचा और पीछे तिरछी नज़र से देखा तो मुस्कुरा रही थी, यानि तीन चौथाई यकीन हासिल हो गया के अब इसके दिल के मुल्क पर मेरी हुकूमत साबित हो कर रहेगी, और मैं एक तानाशाह हुक्मुरान बन के हुकूमत करूँगा इसके दिल पर, इसके रोम रोम पर !

    बाईक चलाते हुए मैंने उसे कहा- सही से पकड़ के बैठना !

    और फ़िर हम बस तक पहुँच गए और बस में अन्दर गए, पूरी बस खाली थी, हम दोनों अन्दर अकेले थे, वो बैग ढूंढ़ रही थी और मैं उसके करीब ही था बिल्कुल, मैंने उसकी कलाई पकड़ी और सीट पर बिठा दिया, खुद भी बैठ गया, और बहुत ही संजीदगी के साथ उसे कहा- शहनाज़, खुदा जाने क्या बात है, आज जब से आप को देखा है, दिल मुसलसल ये निदा दे रहा है कि आप खुदा की जानिब से नाजिल की गई अमानत हो मेरे दिल पर, दिल में आपके लिए इस कदर इज्ज़त और अहेतराम और प्यार उभर रहा है कि मैं खुद बर्दाश्त नहीं कर पा रहा।
    शहनाज ने मेरे सामने देखा और फ़िर खामोशी से सर झुका लिया, उसकी आँखे नम हो गयीं और देखते देखते आँसू टपक पड़ा, और मेरी तरफ देख कर बोली- धोखा तो नहीं देंगे न?

    मैंने दोनों हाथों से बसद-अहेतेराम उसका सर पकड़ा और उसकी पेशानी चूमते हुए कहा- क़सम खुदा की ! मेरी माँ ने मुझे दूध ही वफादारी के किस्से सुना सुना कर पिलाया है।

    बड़ी नजाकत से उंगलियों से उसकी पलकों से आँसू साफ़ किए, उसके सर पर हाथ फेरा और कहा- जितना भरोसा तुम्हें खुद पे है, उतना ही मुझ पे कर सकती हो, क्योंकि मैं भी उसी खुदा का डर रखता हूँ जिस खुदा का डर तुम रखती हो।

    और यह कहते हुए उसके बाज़ुओं को थाम कर उसे खड़ा किया, अपनी ताकतवर बाहों में उसे शिकस्त दे दी और कहा- शहनाज़ हम आप से पाकीज़ा मोहब्बत का पूरी हक्कानियत (सच्चाई) से वादा करते हैं, क्या आपको पूरा यकीन है हमारे इस वादे पे?

    तो मेरे सीने से लगी हुई उसने सर को हाँ में हिलाया, तो मैंने और जोर से दबोच लिया बाहों में और कहा- आई लव यू सो मच मेरे दिल की मालिका, अब मेरे दिल की हर कराहट पे तेरे इश्क की खुशबू का बसेरा रहेगा, रहती ज़िन्दगी ही नहीं बल्के क़यामत तक तेरे इश्क का नाज़ मेरा दिल उठाएगा।

    और मैंने उसके गाल को चूम लिया, कोई आ जाएगा ! इस डर से बाहों से उसे आज़ाद कर दिया।

    और वो शरमाते हुए मुस्कुरा रही थी, नज़रें मिला न रही थी, बैग ले ली उसने और अभी हम बस के अन्दर ही थे कि उसने मेरे गाल पे किस कर ली।

    मैं ख़ुशी के मारे पागल होने लगा, मैंने उसके बाल को जकड़ कर उसके लबों पे अपने लब रख दिए और शिद्दत-ए-प्यास-ए-इश्क की इन्तेहाई तशनगी से उसके लबों से शराब-ए-इश्क पीने लगा और बेहद पागलपन से उसकी ज़बान को चूसने लगा, उसने बैग छोड़ के दोनों हाथ मेरी लम्बी जुल्फों में पिरो दिए और मेरा सर सख्ती से पकड़ के वो भी मेरे लबों से पीने लगी।

    दोनों हालत-ए-बेखुदी और मदहोशी में मस्त थे, दोनों को होश न था कुछ भी, और काफी देर यूँ ही एक दूसरे के लबों से शराब-ए-इश्क पीते रहे, और नशा-ए-इश्क में तर हो गए, अब किसे होश था, मेरा एक हाथ बेसाख्ता उसके नाज़ुक तरीन सीने पे चला गया,

    जो कमीज़ और ब्रा की बंदिश में असीर (कैदी) था, और बड़ी नजाकत से उसके सीने पे हाथ रख कर हल्का हल्का उसे सहलाया तो उसने हाथ हटा दिया मेरा, मैंने फ़िर लगा दिया तो उसने होंठो से होंठ अलग करके हाँफते हुए कहा- फ़िरोज़ नहीं प्लीज़ !

    मगर मैंने देखा वो इस कदर हांफ रही थी मानो कड़ी धूप में वो बहुत दौड़ी हो, मैंने फ़िर उसका सर जकड़ा और उसके लबों को फ़िर अपने लबों में ले लिया और पीने लगा उसकी जवानी को, उसके लबों से जो कुछ पी रहा था वो शहद जैसा लज़ीज़-ओ-शीरीं था।

    एक एक कतरा मेरे हलक से नीचे उतर कर मेरे बदन में आग लगाए जा रहा था, इस बार वो बर्दाश्त ना कर पाई, इतना बेरहम होकर

    उसके लबों को चूस रहा था तो वो बेकाबू होके मेरे शर्ट में हाथ डाल मेरे सीने पे हाथ फेरने लगी। मैंने उसका सीना इस बार बेरहमी से

    दबा लिया और बहुत सख्ती से मसलने लगा और अचानक उसने मेरे सीने से हाथ हटा लिया और मेरा हाथ हटाते हुए बेइन्तेहा

    हांफते हुए बोली- नहीं फ़िरोज, अब नहीं प्लीज़ अब सहा नहीं जा रहा, खुदा के लिए अब और न तड़पाओ, जाने दो मुझे।

    और मैंने रास्ता दिया वो बैग लेकर बाहर आ गई, मैंने बाईक स्टार्ट की, वो बैग लिए बैठ गई पीछे, पीछे बैठे हुए अपना रुखसार (गाल) मेरे चेहरे से सटा के प्यार जताते हुए कहने लगी- फ़िरोज़ आपको कैसे बताऊँ, आज दिल कितना खुश है मेरा।

    मैंने कहा- जान मैं भी आजिज हूँ अपनी ख़ुशी को ज़ाहिर करने के लिए, बस इतना समझ लो कि मैं भी ख़ुशी से पागल हूँ आपके प्यार को हासिल करके, अब चाहे कुछ भी हो जाए, आपके इश्क में ज़र्रा बराबर कमी न आने दूंगा, आपके इस कदर नाज़ उठाऊंगा के बस खुदाई राज़ी हो जाए मुझसे मेरे इश्क की दीवानगी देख के, मेरी दीवानगी का इज़हार देख के !

    वो अपनी ख़ुशी का इज़हार करते हुए पहली मर्तबा बोली- आई लव यू फ़िरोज़ !

    मैंने जवाबन कहा- आई लव यू टू जान !

    और हम होटल के कमरे पे पहुँचे और शहनाज़ को सलामती से वहाँ छोड़ के जाने लगा, तो शहनाज़ दरवाज़े पे खड़ी हसरत भरी निगाहों से मुझे जाता देखती रही।

    दोस्तो, कैसे बताऊँ उस क़यामतनुमा हसीना की खूबसूरती को, न मोटी न पतली, न लम्बी न नाटी, सर से पाँव तक आफत ही आफत थी वो !

    इस मौके पे 'दाग' दहेलवी का एक शेर याद आ रहा है, जो मैंने उस वक़्त वह तो न बोला था मगर यहाँ आपको सुना रहा हूँ।

    आफत की शोखियाँ हैं तुम्हारी निगाह में

    क़यामत के फितने खेलते है जलवा-गाह में

    मुश्ताक इस अदा के बहुत दर्दमंद थे

    ऐ दाग़ तुम तो बैठ गये एक आह में !

    सीढ़ियाँ उतरते मुड़ के वापस उसके पास गया और कलाई पकड़ के एक तरफ लिया और पूछा- चेहरा क्यों उतरा हुआ है?

    तो इतनी मासूमियत से उसने कहा- आप जा रहे हैं इसलिए !

    अल्लाह, क्या खूब अदा दी है तूने इस हंगामा-परस्त खूबसूरती को !

    मैंने कहा- दो घंटे बाद हाल में रिसेप्शन और निकाह का प्रोग्राम है, अब हम लोग वहाँ मिलेंगे !
    और रिसेप्शन के वक़्त सब वहाँ हाज़िर हो गए थे, दुल्हन और उसकी दोनों सहेलियाँ और शहनाज़ ये चारों भी आ गए, स्टेज पर दुल्हे दुल्हन की कुर्सी पर दुल्हे दुल्हन आ गए, दुल्हे की तरफ हम लड़के और दुल्हन की तरफ मेरी शहनाज़ और बाकी लड़कियाँ थी। हम दोनों लोगों से नज़रें चुरा कर आपस में मुस्कराहट से प्यार कर रहे थे एक दूसरे को। मैंने कोई ना देखे, इसका ख़याल करके आँख मारी शहनाज़ को तो उसने गुस्से से होंठ पे दांत दबा के मुझे डांटा कि 'कोई देख लेगा यहाँ', तो मैं शरारत से हंस दिया, मैंने एक गुलाब देखा, उठाया और उसे दुल्हे दुल्हन की कुर्सी के पीछे इशारे से बुलाया और महकता हुआ गुलाब-ए-इश्क उसे बहुत प्यार से हाथ में दिया और 'आई लव यू' कहा

    वो हल्के से मुस्कुरा दी। दुल्हन ने मेरा 'आई लव यू' सुन लिया, तिरछी निगाह से हम दोनों को देखा।

    हम दोनों हड़बड़ाहट से अलेहदा (अलग) हो गए, और फ़िर इसी तरह शाम तक हमारा सफ़र-ए-इश्क महेव-ए-मंजिल रहा, और जब रुखसती तमाम हुई, तो दुल्हन वाले लौट के जाने की तैयारी करने लगे तो मेरा कलेजा तन्हाई के खौफ से लरज़ने लगा कि शहनाज़ आज ही मिली और आज ही लौट जाएगी !?!

    'ए खुदा, तूने मोहब्बत ये बनाई क्यों है?

    गर बनायी तो मोहब्बत में जुदाई क्यों है?'

    दुल्हन तो चली गई अपने सुहाग की पनाह में, और रज़िया आई मेरे पास- हमारा सामान होटल के कमरे पड़ा है, और हमें बस तक जाना है।

    मैंने कहा- कोई बात नहीं, तुम दोनों जाओ बस पर, मैं शहनाज़ और सामान दोनों पहुँचा देता हूँ बस पे आपको !

    रज़िया हंसते हुए बोली- सही सलामत पहुँचाना दोनों सामान को !

    मैंने भी हंसते हुए जवाब दिया- आपका सामान अमानत से पहुँचेगा और मेरा सामान मेरी जागीर है अब, वो अब अमानत मेरी है।

    तो रज़िया बोली- या अल्लाह, एक ही दिन में अपना बना लिया?

    मैंने कहा- अपना तो सुबह ही बना लिया तो अभी तो आपको बता रहा हूँ।

    शहनाज़ भी वहीं खड़ी सर झुकाए रज़िया की मौजूदगी के लिहाज़ के पेशेनज़र शरमा रही थी।

    और फ़िर हम दोनों बाईक लेके अफज़ल के घर गए, वहाँ से कार ली, अफज़ल को बाईक दी और कहा- अब मैं इनको और इसके सामान को होटल से बस तक पहुँचा कर सीधे वहीं से निकल जाऊँगा।

    वो रोकने लगा मगर मैं रुका नहीं और फ़िर मैं और शहनाज़ कार से होटल गए, अन्दर कमरे में दाखिल हुए, मैंने कहा- जल्दी सामान पैक कर लो।

    मैं वाशबेसिन पर मुँह धोने लगा तो उतने में शहनाज़ पीछे से मुझसे लिपट गयी, मेरे गालों पर चूमने लगी- फ़िरोज़, अब कब मिलना होगा?

    मैंने कहा- मेरे दिल की शहजादी का जब दिल करे तब मिलेंगे हम मेरी जान !

    और यह कह कर पलट कर मैंने उसे बाहों में जकड़ लिया बेपनाह ताकत से, वो बे'आब मछली की मानिंद मचलने लगी मेरी ताकतनुमा बाहों की शिकस्त में,

    उसके उरोज बुरी तरह दब गए मेरे सख्त सीने से, और उसने भी अपने बांहें मेरे गले में डाल दी और मेरी पुश्त (पीठ) पर अपना हाथ फेरने लगी। बहुत ही बेखुदगी और बेचैनी और बेअख्तियारी के आलम में वो मुझसे लिपटी हुई मुझसे प्यार कर रही थी और मैं भी उसी शिद्दत से उसे अपनी आगोश-ए-इश्क में दबाये हुए प्यार कर रहा था।

    कुछ लम्हे यूँ ही बीत गए, कि वो बेसाख्ता रोते हुए बोली- आप मेरी ज़िन्दगी के मालिक हैं, कभी छोड़ना मत अब मुझे !

    जवाबन मैंने कहा- नहीं छोडूंगा मेरी रूह-उल अफशा, मेरी आँखों का नूर हो अब तुम, मेरी बेकरार जवानी को तुमने आके महेव-ए-करार किया है, मेरे लहू की हर बूंद बूंद में तुम्हारे इश्क का इस कदर नशा भरूँगा के मेरे रोम रोम तुम्हारे मुश्ताक रहेंगे मेरी जान, बस अब रहती ज़िन्दगी तक मेरी साँसों की रवानी पर आप साहिबान हो, आप हुक्मुरान हो, आप मेरे दिल की रु-ए-ज़मीन अब से हाकिम हो ! आई लव यू मेडली जान !

    इतने में रजिया का फ़ोन आया- जल्दी करो, बस तैयार है।

    फ़िर हम लोगों को न चाहते हुए भी वक़्त की तंगी के पेशे नज़र एक दूसरे की बाहों से जुदा होना पड़ा, दोनों के जिस्मों में यलगार लगी हुई थी, दोनों की जिस्मानियत जल कर ख़ाक हो जाने को आमादा थी, मगर हम बैग उठा के चल दिए और कार में बैठ गए।

    कार स्टार्ट करके देखा कि सन्नाटा है तो इसका जायज़ फायदा उठा लिया और शहनाज़ के बालों को जकड़ कर उसे मेरी जानिब झुका के उसके लबों पे अपने लब रख दिए और बेहद बेचैनी से उसे चूमने लगा, उसने भी साथ दिया, मगर वक़्त की तंगी को नज़र में रखते हुए किस करते हुए ही कार को पहले गेअर में डाला और चलाई तो शहनाज़ अपनी जगह पर सही से बैठ गई और मैंने उसे बस पर छोड़ दिया।

    मैं हाथ मलता रह गया और शहनाज़ चली गई।

    मानो ता-हद्दे नज़र अन्धेरा तारी हो गया मेरी नजरों के आगे, और फ़िर बस के निकलने के बाद मैं भी कार लेकर उसके पीछे पीछे चलने लगा। बस को अहमदबाद जाने के लिए भावनगर से ही जाना पड़ता है तो भावनगर तक इस बस के साथ ही चलूँगा क्योंकि इसमें मेरी शहनाज़ है।

    कुछ देर चली थी के रज़िया के मोबाईल से मिस काल आया। मैंने काल किया तो शहनाज़ बोली- आप कहाँ पहुँचे?

    मैंने कहा- आपकी बस के पीछे ही हूँ देखो पीछे !

    तो वो बोली- मैं आ जाऊँ क्या?

    मैंने कहा- आ जाओ !

    तो कहने लगी- न बाबा, सब बातें करेंगे !

    और फिर थोड़ी सी बातें की और फोन रखा। फ़िर अपना म्युज़िक प्लेयर ओन करके स्पीड से कार चलाने लगा और सीधे घर आ गया, करीब रात को दो बजे रज़िया के फोन से शहनाज़ का फिर फोन आया कि हम लोग सही सलामत पहुँच चुके हैं।

    मैंने कहा- शुक्र खुदा का, मेरी जान सही सलामत पहुँच गई ! खुदा इसी तरह हर मुसाफिर को अपनी मंजिल तक सही सलामत इज्ज़त के साथ पहुँचाये !

    शहनाज़ ने आमीन कहा, शहनाज़ बोली- कल मैं आपको अपने मोबाईल से काल करुँगी और फ़िर गुड नाईट और 'आई लव यू' के बाद फोन रख दिया।

    दोस्तो, उम्मीद करता हूँ कि मोहब्बत की इज्ज़त करने वालों को यह कहानी पसंद आई होगी??
     

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